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रविवार, 8 सितंबर 2019

आपके सामान से होगी आपकी पहचान तब जाकर मिलेगा सम्मान

✴️✴️ हीरे का मोल ✴️✴️


       मेवाड़ की रानी मीराबाई 15वीं शताब्दी के मशहूर संत गुरु रविदास जी की शिष्य थी । मीराबाई की सखियां-सहेलियाँ गुरु रविदास जी की  नीची जाति पर नाक मुंह चढ़ाती थी। वह मीराबाई को ताने देती थी कि तू खुद शाही महलों में रहती है, पर तेरा गुरु जूते सी कर बड़ी मुश्किल से गुजारा करता है।

                   मीराबाई को इस बात का बहुत दुख हुआ। उसके हृदय में सतगुरु रविदास जी की के लिए सच्चा प्रेम और आदर था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करें । अंत में एक दिन उसने हीरो के डिब्बों में से एक कीमती हीरा निकाला ताकि गुरु रविदास जी को दे सके,  जिसे बेचकर उन्हें काफी धन मिल सकता था। वह हीरा लेकर गुरु रविदास जी के पास चली गई । उसने माथा टेक कर और हाथ बाँधकर अर्ज की," गुरु जी, मुझे आपकी गरीबी देख कर बहुत दुख होता है और लोग मुझे ताने देते हैं कि
तेरा गुरु इतना ग़रीब है। आप यह हीरा स्वीकार कर लें और इसको बेचकर सुंदर सा घर बना लें ताकि आप खुद की जिंदगी गुजार सकें ।"

                          गुरु रविदास जी उसी तरह जूते काटते हुए बोले, "बेटी, मुझे जो कुछ मिला है, कुंड के पानी और जूते गांठने से मिला है ।अगर तुझे लोक-लाज का डर है तो घर में बैठकर ही भजन-सुमिरन कर लिया कर, मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं। यह हीरा मेरे किसी काम का नहीं। चाहे लोग मुझे ग़रीब समझते हैं पर मुझे गरीबी में ही आनंद है। मुझे दुनिया की किसी नाशवान वस्तु की जरूरत नहीं।"

           
                 मीराबाई हर हालत में गुरु रविदास जी को हीरा देना चाहती थी । वह बहुत देर तक मिन्नतें करती रहे, पर गुरु जी ने एक ना सुनी। अंत में निराश होकर मीराबाई कहने लगी, "गुरु जी, मैं हीरा आपकी कुटिया की छत में छोड़ जाती हूं। जब जरूरत पड़े, आप निकाल लेना ताकि आपका जीवन सुखमय हो जाए।"

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                                            यह कहकर मीराबाई अपने महल में चली गई । इस बात को कई महीने बीत गए। जब वह फिर गुरु रविदास जी के दर्शन जी को गई तो यह देखकर हैरान रह गई कि वह अब भी गरीबी की हालत में जूते काट रहे थे। उसने आदर पूर्वक माथा टेक कर कहा, "गुरु जी, मैं बड़े प्यार और आदर से आपके लिए हीरा छोड़ गई थी, आपने उसका फायदा क्यों नहीं उठाया ?
                                          गुरु रविदास जी बोली," बेटी, मैंने हीरे का क्या करना है। मुझे परमात्मा ने नाम का वह धन बख्शा है जिसका हिसाब लगा पाना असंभव है। तुम वापस जाती हुई हीरा साथ ले जाना ।"

                         मीराबाई ने छत पटोली तो हीरा वहीं पड़ा मिला जहां वह रख कर गई थी। गुरु रविदास जी ने हीरा की ओर ध्यान ही नहीं दिया था । यह देखकर मीराबाई को अपने गुरु की बड़ाई का सच्चा ज्ञान हो गया और उसे एहसास हो गया कि उसकी सतगुरु किस अपार रूहानी दौलत के मालिक हैं। वह प्रेम, श्रद्धा और नम्रता के  साथ सतगुरु के चरणों में 
 गिर पड़ी ।


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